मल्टिनैशनल बनें हमारी भी कंपनियां, ये हर भारतीय की चाहत, लेकिन अडानी केस अलग है

लेखक: टीके अरुण
अमेरिका के सिक्योरिटीज रेगुलेटर सिक्यॉरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन (SEC) ने अडानी ग्रुप पर रिश्वतखोरी के आरोप लगाए हैं। यह खबर भारत के बड़े कारोबारी समूहों और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी नहीं है। अडानी ग्रुप बड़े प्रॉजेक्ट्स

4 1 1
Read Time5 Minute, 17 Second

लेखक: टीके अरुण
अमेरिका के सिक्योरिटीज रेगुलेटर सिक्यॉरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन (SEC) ने अडानी ग्रुप पर रिश्वतखोरी के आरोप लगाए हैं। यह खबर भारत के बड़े कारोबारी समूहों और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी नहीं है। अडानी ग्रुप बड़े प्रॉजेक्ट्स को पूरा करने के लिए जाना जाता है। सेक के आरोप सही हैं या नहीं, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा। लेकिन इससे एक बात तो साफ है कि भारतीय कंपनियों को वैश्विक स्तर पर कारोबार करने के लिए कुछ बड़े बदलाव करने होंगे।
आज दुनिया ग्लोबलाइज हो चुकी है। पूंजी, सामान और प्रतिभा देश की सीमाओं से परे जा रहे हैं। जवाबदेही और पारदर्शिता की उम्मीदें भी बढ़ी हैं। ऐसे में भारतीय कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरना होगा।

सेक अपने कुल मामलों में से सिर्फ 1% में ही फॉरेन करप्ट प्रैक्टिसेज एक्ट (FCPA) के तहत कार्रवाई करता है। ऐसे मामलों में जुर्माना भी बहुत बड़ा होता है। हालांकि, सेक अपने 98% मामलों का निपटारा समझौते से ही कर लेता है। इनमें जुर्माना लगता है या नहीं, अपराध स्वीकार किया जाता है या नहीं, यह अलग-अलग मामलों पर निर्भर करता है। यह देखना होगा कि अडानी के मामले का क्या नतीजा निकलता है।

यह कड़वी सच्चाई है कि रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार लंबे समय से भारतीय व्यापार और राजनीति का हिस्सा रहे हैं। निजी क्षेत्र में भ्रष्टाचार इसलिए होता है ताकि व्यापारी और अधिकारी अपनी कंपनियों और शेयरधारकों को चूना लगाकर खुद मालदार बन सकें। सरकारी अधिकारी भी रिश्वत लेते हैं। वे व्यापारियों के काम रोकने, देरी करने या जल्दी करने के लिए रिश्वत लेते हैं। राजनीतिक भ्रष्टाचार भी होता है जो दूसरे तरह के भ्रष्टाचार को खत्म करने से रोकता है।

बैंक मैनेजर लोन मंजूर करने के लिए कमीशन लेते हैं। परचेज मैनेजर कमीशन के आधार पर ही विक्रेता चुनते हैं। फंड मैनेजर पर अंदरूनी व्यापार का शक हमेशा बना रहता है। वे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को बता देते हैं कि उनका फंड किस शेयर में निवेश करने वाला है। फिर उनके दोस्त और रिश्तेदार पहले से ही उन शेयरों या उनके डेरिवेटिव्स को खरीद लेते हैं। और जब फंड उन शेयरों को खरीदता है तो कीमतें बढ़ जाती हैं और वे मुनाफा कमाते हैं।

जब कोई कंपनी किसी दूसरी कंपनी को खरीदती है, तो बिकी हुई कंपनी के मालिक, खरीदार कंपनी के प्रमोटर के विदेशी खाते में कुछ पैसे ट्रांसफर कर देते हैं। इस तरह वे खरीदार कंपनी को ही लूटते हैं। लालच और पकड़े जाने या सजा होने की कम संभावना ही ऐसे व्यवहार को बढ़ावा देती है। व्यापारियों का कहना है कि उन्हें अपना व्यापार बढ़ाने के लिए पूंजी की जरूरत होती है।

जब आज की दौलतमंद दुनिया के उद्योगपति अमीर बनने की दौड़ में थे, तो पूंजी इकट्ठा करना एक गंदा काम था। इसमें समुद्री डकैती, गुलामों का व्यापार, गुलाम बागान, उपनिवेशों को लूटना और महिलाओं, बच्चों एवं मजदूरों का शोषण शामिल था। भारतीय उद्योगपति केवल अपने विकास के शुरुआती दौर में अमीर दुनिया के अपने समकक्षों से ईर्ष्या ही कर सकते हैं और अपने छोटे-छोटे गंदे तरीकों से पूंजी जमा करने के लिए आगे बढ़ सकते हैं।

सबसे खतरनाक भ्रष्टाचार राजनीतिक भ्रष्टाचार है। ज्यादातर भारतीय 'दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र' होने पर गर्व करते हैं। लेकिन कुछ लोग ही लोकतांत्रिक मशीनरी को चलाने के लिए पैसे देने को जरूरी समझते हैं। इस मशीनरी में राजनीतिक दल, उनके देश भर में फैले कार्यालय, उनके कार्यकर्ता, यात्रा, प्रचार, रैलियों आदि का खर्च शामिल है। उम्मीद की जाती है कि पार्टियां अपने हिसाब से धन जुटाएंगी। और वे ऐसा ही करते हैं।

जब जीडी बिड़ला ने भी कांग्रेस को फंड चुपचुप ही दिए थे, ताकि पार्टी मोहनदास करमचंद गांधी की छवि महात्मा की बनाकर उसे कायम रख सके और अन्य राजनीतिक गतिविधियां चला सके। कोई भी सेठ जी नहीं चाहते थे कि अंग्रेज सरकार को पता चले कि वह उस पार्टी को कितना फंड दे रहा है जो उसे उखाड़ फेंकना चाहती है। चुपचाप, अनौपचारिक रूप से फंड देने की वह परंपरा आजादी के बाद भी जारी रही। शुरुआत में, धन का उपयोग केवल राजनीति की फंडिंग करने के लिए किया जाता था।

धीरे-धीरे इस तरह की फंडिंग में जबरन वसूली, राज्य की तरफ से संरक्षण दिए जाने के बदले पैसे की डिमांड और बढ़े हुए सरकारी ठेकों के माध्यम से सरकारी खजाने की लूट का चलन बढ़ा। इन तरीकों का उपयोग व्यक्तिगत संपत्ति बनाने के साथ-साथ राजनीति को फंडिंग के लिए भी किया जाता था। इस तरह से हमारी राजनीतिक पार्टियों को फंड देना देश के उद्योगों पर निर्भर करता है। तब कॉर्पोरेट गवर्नेंस के साथ-साथ अकाउंट्स और ऑडिट की अखंडता को कमजोर करना पड़ता है, बड़ी मात्रा में पैसे को ऑफ द बुक लेना पड़ता है ताकि पॉलिटिकल मशीनरी की फंडिंग की जा सके।

उदारीकरण के शुरुआती वर्षों में कंपनियों को पता चला कि शेयर बाजार में तेजी के दौरान व्यावसायिक मुनाफे को छिपाने के बजाय घोषित करने के क्या फायदे हैं। इससे शेयर बाजारों पर कंपनियों का बेहतर मूल्यांकन होने लगा और प्रमोटरों ने अरबपतियों की सीढ़ी के निचले पायदानों पर चढ़ाई कर ली। सत्यम घोटाले में कंपनी ने फर्जी लाभ दिखाया, यहां तक कि उन पर टैक्स भी दिया, ताकि शेयर की कीमतें बढ़ें और उन्हें गिरवी रखकर पैसा भी जुटाया जा सके।

सत्यम ने प्रॉजेक्ट्स की लागतों से कहीं ज्यादा पैसे बाजार से ले लिए थे। इस तरह जुटाई गई अतिरिक्त पूंजी को प्रॉजेक्ट्स लागू करने के दौरान निकाल लिया जाता है ताकि नेता, नौकरशाही के साथ-साथ अन्य सुरक्षा तंत्रों को पेमेंट करने के लिए जरूरी कोष बनाया जा सके। विदेशी फंड का इस्तेमाल शेयर खरीदने और उनकी कीमतें बढ़ाने के लिए किया जाता है ताकि शेयर बेचकर बाजार से लिए गए लोन से और भी अधिक पूंजी जुटाई जा सके। व्यावसायिक भ्रष्टाचार और राजनीतिक भ्रष्टाचार के पारस्परिक गठजोड़ से कुछ समय के लिए विकास को बढ़ावा मिलता है। यह देश के भीतर आम बात लग सकती है, लेकिन बाहर के लोगों के लिए यह डरावना लगता है।

व्यावसायिक भ्रष्टाचार सभी विचारधारा की राजनीति को पोषित करता है। उद्योग जगत को इस बोझ से मुक्त करने के लिए पॉलिटिकल मशीनरी को फंडिंग का वैकल्पिक रास्ता बनाना होगा। इसके लिए 1 अरब मतदाताओं से स्वैच्छिक योगदान की अपेक्षा की जा सकती है। ये पैसे बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से आए हों और जिनका खुला हिसाब-किताब हो। इसके लिए राजनीति को साफ-सुथरी होना पड़ेगा। यह तभी संभव है जब राजनीति में हॉर्स ट्रेडिंग जैसे अनैतिक गतिविधियां रुक जाएं क्योंकि ऐसे काम पर किए गए खर्च का हिसाब को कोई राजनीतिक दल सार्वजनिक नहीं कर सकता है। अभी तो आम मतदाता के वोट लेने के लिए भी पैसे दिए जा रहे हैं, लोगों को पैसे देकर रैलियों में लाए जा रहे हैं।

जिसने जीवन में कभी पाप नहीं किया हो, वही पाप के दोषी को पहला पत्थर मारे। इस कहावत को चरितार्थ करते हुए भारत लोकतांत्रिक राजनीति का मार्गदर्शक बन सकता है। अगर भारतीय राजनीति इसका पालन करे तो पत्थर उठाने की नौबत ही नहीं आएगी। हमारा मकसद इससे भी पवित्र होना चाहिए- पत्थर उठाना नहीं, पाप रोकना। यह मुश्किल हो सकता है, लेकिन बेहद पवित्र।

\\\"स्वर्णिम
+91 120 4319808|9470846577

स्वर्णिम भारत न्यूज़ हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं.

मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Laptops | Up to 40% off

अगली खबर

पूर्व सीएम से हजार गुना बेहतर मुख्यमंत्री आतिशी... एलजी वीके सक्सेना ने एक तीर से लगाए दो निशाने!

नई दिल्ली: दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार और उपराज्यपाल वीके सक्सेना के बीच तकरार कोई नई बात नहीं है। लेकिन शुक्रवार को एलजी ने सीएम आतिशी को लेकर बड़ा बयान दिया है। उन्होंने एक यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम में खुलकर सीएम आतिशी की तारीफ की। उन्होंने

आपके पसंद का न्यूज

Subscribe US Now